नवोत्थान के क्रम में भारतीय मुसलमानों में जो विभिन्न भाव उदित हुए, उनकी दिशा एक नहीं थी यह बात हम कथित शीर्षक के पहले भाग में लिख चुके हैं। बड़ा सवाल यह है कि नवोत्थान के संदर्भ को कैसे समझा जाये? नवोत्थान से यहां अभिप्राय यूरोप के उस नज़रीय से जिसने उसके अद्भुत रूप से ज्ञान चक्षु खोल दिए थे। इतिहास बताता है कि विज्ञान ने यूरोप के अन्दर एक उमंग व ऊर्जा का संचार किया था। यूरोप के लोग व्यापार के लिए सारे संसार में फैलने लगे और वे इसी व्यापार के माध्यम से कमाई धन-संपदा अर्जित करने लगे। निसंदेह इतना तो हम सब समझते हैं कि यह धन ही है जिससे जीवन में सुविधाएं बढ़ती हैं। यह भी ठीक है कि सुविधाओं से ही ज्ञान-विज्ञान,शक्ति और संस्कार,सब की वृद्धि होती है। ऐसे में जहां एक ओर यूरोप अपने इस गुण से विश्व में उन्नित करता गया वहीं दूसरी ओर उक्त गुणों के अभाव में एशिया छीजता चला गया। परिणामत: इस्लाम की चमकती तलवार कुंद होती चली गई। जिसने एक दौर में अपने आतंक से यूरोप को सदियों पीडि़त रखा था। इसके अलावा हम पहले भाग में यह भी लिख चुके हैं कि ऐसे में मुस्लिम और नवोत्थान से संबंधित एक शिक्षा यह थी कि इस्लाम,पीडि़त, विकृत और रूढिग़्रस्त है, अत: इसक ा उद्धार यूरोपीय गुणों के अनुकरण से ही संभव होगा। वहीं नवोत्थान की दूसरी शिक्षा यह भी थी कि अपने उद्धार के लिए हमें दूसरों के अनुकरण की आवश्यकता नहीं अपितु इस्लाम के इतिहास से ही हमें हर तरह की प्ररेणा मिल सकती है। वहीं इस नवोत्थान की तीसरी शिक्षा यह थी कि यूरोप इस्लाम का शत्रु है और जहां-जहां युरोपीय प्रभाव काम कर रहा है वहां मुसलमानों को सावधान रहना चाहिए। ऐसे में मुसलमानों का नवोत्थान से प्ररेरित हर एक प्रभाव को संदेह की दृष्टि से देखना स्वभाविक था। कहना $गलत न होगा कि नवोत्थान से प्ररेरित मुसलमान मिलीजुली संस्कृति के उन अंश को दूर करने में जुट गए थे जिन्हें वे हिन्दुत्व के प्रभाव में आये हुए अंश समझते थे। यह भी ठीक है कि ऐसे में नवोत्थान से प्ररेरित मुसलमान विश्व में इस्लाम की रक्षा करने में जुट गए थे। भारत में आरंभ हुए स्वतंत्रता आंदोलन में मुसलमान का साथ देना भी इस्लाम रक्षा की प्ररेणा का प्रभाव ही कहा जाए तो ठीक होगा। अध्ययन व खोज से मालूम होता है कि जिस प्रकार मुस्लिम राष्ट्रीयता कहें या साम्प्रदायिकता की धारा मुस्लिम नवोत्थान की देन है वहीं हिन्दु-नवोत्थान भी इससे ज्य़ादा भिन्न नहीं है। हिन्दु-मुस्लिम नवोत्थान की धाराएं कैसे बाहर आई इनका उल्लेख हमें, स्वामी दयानंद के धार्मिक आंदोलन, बंकिम बाबू और डी.एल. राय के उपन्यासों और नाटकों में, मिलता है। सच तो यह है कि नवोत्थान जातियों का ध्यान भूत-काल की ओर खींचता है। जिसके चलते जातियों के अमर सत्य का जन्म भी दुबारा हो जाता है। वहीं जातियां इतिहास के मिथ्या अहंकारों से चिपक जाती हैं, जिससे प्राचीनता का मोह (रिवाइवलिज्म)कहा जाता है। नवोत्थान के क्रम में जैसे हिन्दुत्व और इस्लाम के धार्मिक व दार्शनिक सत्य फिर से जी उठे, वैसे ही हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अपने-अपने पौराणिक संस्कारों की भी वृद्धि हुई है जो उन्हें एक दूसरे से अलग व दूर ले जाने की चेष्टा करते हैं।
वहीं, जब भारत ने, अंग्रेज़ों को हटा भारतीय सरकार कायम करने का स्वप्न देखा तो मुस्लिम-नवोत्थान से भी दो धारएं विभक्त हो कर सामने आई। इनमें से एक धारा ऐसी थी जो सब कुछ भुलाकर आंख मूंद कर अंग्रेज़ों को देश से बाहर निकाल देने के लिए बेचैन थी। जबकि दूसरी धारा का साथ देने वाले मुसलमानों में इस बात की शंका थी अंग्रेज़ो के जाने के बाद उनका क्या होगा? दूसरी धारा में केवल मुसलमान ही नहीं बल्कि हिन्दु भी थे। ऐसे में राष्ट्रीय आंदोलन के लक्ष्ण की जब हम बात करते हैं तो उसमें निहित-स्वार्थवाले धनी-मानी लोग तो कम थे। किन्तु, धनियों का सारा वर्ग प्रयत्न हीन था। बहुत से पैसे वाले लोग हिन्दु-सभा के साथ थे। ऐसे में अंग्रेज़ हिन्दु-सभा के चिढ़ते नहीं थे बल्कि उसे साम्प्रदायिकता की सहायिका मानते थे। इसलिए अंग्रेज़ यह समझते थे कि हिन्दु-सभा राष्ट्रीय आंदोलन पर लगाने के काम आ सकती थी। यह बात अलग कि राष्ट्रीयतावादी धारा में हिन्दु अधिक और मुसलमान कम आए थे।
कुछ मुसलमान नवोत्थानी संस्कार की वजह से और अंग्रेज़ो की चाल के कारण सच में ही हिन्दु-बहुमत से शंका ग्रस्त और भयभीत थे। ऐसे में उनके लीगी नेताओं जिस तरफ चलने को कहा वे उसी तरफ हो गए। भारत के विभाजन से ऐसा दिखने लगा कि मानों जैसे शंका, द्विधा और अंधकार की यह धारा जीत गयी हो। जबकि जीत अभी दूर थी।
उस दौर में कांग्रेस के समक्ष सबसे बड़ी समस्या यह थी कि वह हिन्दु-मुस्लिम समस्या का समाधान निकाले। यह समाधान था कि कांग्रेस मुसलमानों में यह विश्वास पैदा करे कि भारत उनका देश है और उन्हें भारत के लिए उसी प्रकार जीना और मरना चाहिए जिस प्रकार अन्य देशों के लोग अपने देश के लिए करते हैं।
वहीं उक्त समाधान का, दूसरे स्वभाविक पक्ष का संबंध हिन्दुओं से जुड़ा था और वह यह कि जब तक हिन्दु अपने इतिहास का दग्ध अंश नहीं भूलते कि वे मुसलमानों को सहज दृष्टि से देखने में असमर्थ हैं। कहने का आशय यह है कि क्या हिन्दु गजनवी, औरंगजेब, और जिन्ना के भूत को भूला देंगे। जब तक हिन्दु यह सब नहीं भूलाते तब तक उनका दिल साफ नहीं होगा। गजनवी, गोरी,औरंगजेब और जिन्ना ही नहीं अपितु अ$कबर, दाराशिकोह, बहादुरशाह, अजमलखां , अनसारी और आज़ाद भी मुसलमान ही थे। सच तो यह है कि अजमलखां, अनसारी और आज़ाद की क्षणस्थायी पराजय की कुल जि़म्मेदारी मुसलमाने पर नहीं लादी जा सकती थी, उसके लिए हिन्दु भी थे। कहना उचित होगा कि जब चिराग की लौ पतली हो तो ज़ोर की हवा नहीं चलनी चाहिए। कहना सही होगा कि अनसारी और आज़ाद की विजय तो बहुमत की सहिष्णुता पर आधारित थी, या कहें कि हिन्दुओं की उदारता और सम्पूर्ण न्याय-बुद्धि से होनी थी। भारत की धार्मिक एवं प्रजातीय एकता की समस्या ऐसी नहीं है और न थी कि जिसका समाधान वीरता,जोश,और निर्भयता से ढूंढा जा सके।
जारी..........