शिक्षा एक महान संसाधन: ई.एफ. शुमाकर

इतिहास गवाह है कि शुरू से अंत तक मनुष्य धरती के जिस भी हिस्से में जाकर बसा उसने वहां अपनी जाति की वृद्धि की और किसी न किसी  प्रकार की संस्कृति को जन्म दिया। मनुष्यों ने हमेेशा और हर जगह अपनी जीविका के साधन ढूंढे और उन्हें बचा कर भी रखा। कहना उचित होगा कि समय-समय पर सभ्यताओं ने जन्म लिया और उन्नत हुई फली-फूली और उनमें से ज्यादतर फना और तबाह हुई। हम यहां इस बात पर चर्चा नहीं करेंगे कि वे सभ्यताएं क्यों और कैसे तबाह हुई या मिट गई; लेकिन इतना ज़रूर कहना होगा कि उनके मिटने में: कहीं न कहीं कुछ संसाधनों का असफल होना ज़रूर रहा होगा। यह भी ठीक कि अधिकतर मामलों में उसी ग्राउंड पर नई सभ्यताओं  ने जन्म भी लिया। यह कैसे हुआ? समझ से परे है। क्योंकि अगर  ये केवल भौतिक संसाधन द्वारा जन्म होती तो अवश्य पहले ही समाप्त हो गई होती। यह कैसे संभव हो सकता है कि ऐसे भौतिक संसाधन स्वता: ही एकत्र हो जाएं!
 ऐसे में कहना उचित होगा कि तमाम इतिहास और वर्तमान अनुभव इस ओर इशारा करते हैं कि यह कुदरत नहीं जिसने प्राथिमक संसाधन दिये हैं: बल्कि आर्थिक उन्नित के तमाम घटक या कारक मनुष्य के दिमाग की देन हैं। अचानक देखते हैं कि किसी एक क्षेत्र में नही अपितु कई क्षेत्रों में साहस, पहलकदमी, संरचनात्क गति विधियों का प्रकटीकरण हो जाता है। कोई नहीं जानता कि ये पहले-पहले कहां से आई? लेकिन हम देखते हैं कि ये कैसे रखरखाव में आई और अपने-आप में मज़बूत होती गई। अगर ये माने कि इन सब को विभिन्न स्कूलों या दूसरे शब्दों में कहें कि क्षिक्षा के माध्यम से मनुष्य ने हासिल किया है तो मूल बात भी यही है कि एजूकेशन यानि शिक्षा  ही मूल संसाधन है।
 आइए अब हम उस महान ऑथर  का भी आपसे संक्षिप्त परिचय करा दें  जिन्होंने उक्त  विचारों का उल्लेख 1973 में  अपनी पुस्तक, स्माल इज़ बियूटीफूल में किया था। स्माल इज़ बियूटीफूल, दूसरे विश्व युद्ध काल से ही संसार की प्रसिद्ध-प्रभावी पहली 100 पुस्तकों  में से एक है। अर्नस्ट फैडरिक शुमाकर का जन्म जर्मन-ब्रिटिश में 16 अगस्त 1911 को हुआ था और उनकी मृत्यु 4 सिंतबर 1977 में स्विटजर लैण्ड में हुई थी।  वह विख्यात साख्ंयाकी विद् और अर्थशास्त्री थे। शुमार1950 से 1970 तक ब्रिटिश नेशनल कोल बोर्ड के मुख्य आर्थिक सलाहाकार भी रहे। उन्हें और भी बहुत से उपयोगी पुस्तकें  लिखी। शुमार ने लंदन के लिए ईकोनोमिक्स पर  दी टाईम्स की भी शुरूआत की।
  अगर यह मानलें कि पश्चिमी सभ्यता स्थाई तौर पर संकट काल में है तो यह जताना कोई क्लिष्ट-कल्पित न होगा यहां इसकी शिक्षा में कुछ न कुछ गढ़बढ़ है। इतना तो तय है कि कोई सभ्यता शिक्षा को संगठित करने हेतु इतनी समर्पित नहीं होती कि वह उस अपनी पर पूरी ताकत व संसाधन लगा दे और अगर हम किसी और चीज पर शकीन करें या न करें परन्तु इतना तो हमें निश्चिय मानना  पड़ेगा कि शिक्षा हर चीज का मूल है। आइए अब थोड़ा जाने कि भारत में शिक्षा की क्रांती के बारे में  रामधारी सिंह दिनकर जी क्या लिखते हैं: 
दिनकर जी लिखते है कि जब भारत में अंग्ररेजी था तो ऐसा नहीं था कि यहां  शिक्षा का प्रचार नहीं था। मुस्लिम-काल में उत्तरी भारत में फारसी काफी प्रचलित थी। फारसी पढ़ाने वाले मदरसे उत्तर भारत के प्राय: सभी नगरों में काम कर रहे थे। यहां तक कि धनी-मानी लोग अपने घरों पर भी मौलवी रखा करते थे, जिनका कार्य उन लोगों को फारसी की तालीम देना हुआ करता था। इनके अलावा सारे देश में संस्कृत-टोल अर्थात मंडलिया और पाठशालाएं भी काम करती थी। यहां तक कि नगरों और गावों में रहने वाले प्रत्येक पंडित का घर छोटी-मोटी पाठशाला ही हुआ करता था। उस दौर के संस्कृत विद्यालय आज की तरह सुसंगठित नही थे। किन्तु उनकी संख्या काफी हुआ करती थी। वहीं प्राथमिक पाठशालाएं तो अत्याधिक हुआ करती थी। इन के अलावा,उच्च विद्यालय भी हुआ करते थे, जिनका उद्देश्य न्याय, व्याकरण,दर्शन साहित्य और ज्योतिष तथा आयुर्वेद की उच्च शिक्षा देना होता था। सन् 1821 ई0 में मद्रास के गवर्नर सर टामस मनरो ने एक  जांंच के दौरान पाया कि उस दौर में मद्रास की कुल आबादी सवा करोड़ थी और उसमें से दो लाख लोग विद्यालय में पढ़ रहे थे। वहीं प्रोफेसर एम.आर.परांजपे ने लिखा है कि उस समय मद्रास के प्रत्येक गांव में एक स्कूल हुआ करता था।
 यहां बड़ा सवाल यह है कि फिर क्या वजह रही कि भारत की शिक्षा-पद्धित जीर्ण-शीर्ण और अंधनुयायी-निष्प्राण कहें या बेदम थी। जिसकी वजह दिनकर जी लिखते हैं कि पुरानी पोथियों में जो लिखा हुआ था लोग वही पढ़ते थे। यहां तक कि विद्वानों में भी नई बातें सोचने या नया ज्ञान खोजने की प्रवृति ही नहीं थी। उस दौर में व्याकरण, साहित्य, दर्शन,और ज्योतिष् के सिवा अगर थोड़ा बहुत कुछ था तो साधारण गणित था। इतिहास, भूगोल, ज्यामिति और स्वास्थ-विज्ञान तक का प्रचार इस देश में नहीं था। हालांकि भारत में शिक्षा क्रांति के अनेकानेक महत्वपूर्ण बिन्दु और भी हैं जिन्हें विस्तार से लिखा जा सकता है और लिखा भी जाना चाहिए। लेकिन इस लेख में हम शिक्षा को एक महान संसाधन मानते हुए समझना चाहते हैं। इसलिए एक बार फिर हम विचार-लेखक शुमाकर की बात को समझना चाहेंगे जो कि उन्होंने अपनी पुस्तक स्माल इज़ बियुटीफु ल में लिखा है।


Since in this article we are talking pertinently about  Education so let us understand what E.F. Schumacher farther said relating  to education. He explained in his book that when people ask for education they normally mean some- thing more than mere training, something more than mere knowledge of facts, and something more than mere diversion. Schumacher farther mentioned that, “ may be they cannot themselves formulate precisely what they are looking for; but I think they are really looking for is ideas that would make the world, and their own lives, intelligible to them. When a thing is intelligible you have a sense of participation; when a thing is unintelligible you have a sense of estrangement. 'Well, I don't know, you hear  people say, as an impotent protest against the unintelligibility of the world as they meet it. If the mind cannot bring to the world a set- or, shall we say , a tool-box- of powerful ideas, the world must appear to it a chaos, a mass of unrelated phenomena, of meaningless events.