इस लेख का विषय और शीर्षक दोनों ही हमने रामधारी सिंह दिनकर की पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय से लिए हैं। हालांकि यह पुस्तक पहली बार सन् 1956 में प्रकाशित हुई थी। लेकिन हमारे पास इसकी सन् 2000 में हुई पुनरावृति है, जिसकी मदद से हम उक्त विषय पर लिखने से अधिक समझने का प्रयास करेंगे। क्योंकि हमारे देश में इन दिनों हिन्दु-मुस्लिम को लेकर चाहे-अनचाहे विवाद खड़े हो रहे हैं। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति कही जा सकती है जिसके चलते सामाजिक एकता और सौहार्द बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है। इतना तो तथ्य आधारित है कि हिन्दुओं की तुलना में समूचे विश्व में मुस्लिम आबादी अधिक है। जहां पूरे विश्व में मुसलमानों की आबादी 24 प्रतिशत से कुछ अधिक है वहीं विश्व में हिन्दुओं की आबादी 15 प्रतिशत ही है। इतना ही नहीं हिन्दुतत्व की तुलना में इस्लाम अन्र्तराष्ट्रीय धर्म कहें या मज़हब है। आज भले ही इतिहास को तोड़-मरोड़ के पेश किए जाने के प्रयास सिर ज़ोर हो रहे हों। लेकिन जो घटनाएं घट चुकी हैं उनके ऐतिहासिक पक्ष को छेडऩा आने वाली पढिय़ों के लिए रतिभर भी उचित न होगा।
अठारहवीं सदी के बाद जैसे एशिया में यूरोप का आतंक रहा वैसा ही कुछ आतंक मध्यकालीन युरोप पर एशिया के इस्लाम धर्म के योद्धाओं का था। इतिहास में उल्लेख मिलता है कि मंगोल-जाति के इस्लाम में दीक्षित होते ही मुसलमानों की तलवार पुन: चमक उठी और वे यूरोप की ओर बढऩे लगे। 15वीं शताब्दी तक पाश्चात्य सभ्यता केन्द्रीय और पश्चिमी युरोप तक ही सीमिट कर तूरानी बर्बरों के साथ केवल रक्षात्मक युद्ध ही लड़ रही थी। वहीं रूस मध्य एशिय के राज्य तातार के पैरों में पड़ा था। नवोत्थान यानिकि रिनासां की यूरोप में तब उठी जब ईसाइ विद्वान् विज्ञान की ओर अग्रसर होने लगे। यह एक ऐसा समय था जब एशियाई देशों के लोग तो रूढिय़ों और अंधविश्वासों में अधिकाधिक जकड़े जा रहे थे, किन्तु युरोप के लोग इन कुसंस्कारों से छूटने लगे थे। कहा जाता है कि पूर्व में तो अंधविश्वासों का मानों अंधकारा ही छा गया था। परन्तु, पूर्व के विपरीत पश्चिमी क्षितिज पर विज्ञानिक आलोक के प्रसार के लिए विज्ञान के बाल-सूर्य उदय होना आरंभ हो चुका था। कहा जा सकता है कि यहीं से नवोत्थान का युग प्रारंभ हुआ।
दिनकर जी का उपरोक्त शीर्षक और विषय को लेकर मानना है कि नवोत्थान के क्रम में भारतीय मुसलमानों में जो विभिन्न भाव उदित हुए, उनकी दिशा एक नहीं थी। ऐसे में मुस्लिम और नवोत्थान से संबंधित एक शिक्षा यह थी कि इस्लाम,पीडि़त, विकृत और रूढिग़्रस्त है, अत: इसक ा उद्धार यूरोपीय गुणों के अनुकरण से ही संभव होगा। वहीं नवोत्थान की दूसरी शिक्षा यह भी थी कि अपने उद्धार के लिए हमें दूसरों के अनुकरण की आवश्यकता नहीं अपितु इस्लाम के इतिहास से ही हमें हर तरह की प्ररेणा मिल सकती है। वहीं इस नवोत्थान की तीसरी शिक्षा यह थी कि यूरोप इस्लाम का शत्रु है और जहां-जहां युरोपीय प्रभाव काम कर रहा है वहां मुसलमानों को सावधान रहना चाहिए। ऐसे में नवोत्थान से प्ररेरित मुसलमान ऐसे प्रत्येक स्वभाव को संदेह से देखने लगे जो पहले यूनान और फिर यूरोप से आकर इस्लाम को प्रभावित कर रहा था।
कहना $गलत न होगा कि इतिहास चाहे हाल ही हो या पुराना दोनों ही समझना असहज होता है। सन् 1930 में मुस्लिम लीग के सभापति की हैसियत से अलमा इ$कबाल ने भारतीय मंच से बोलते हुए सबसे पहले पाकिस्तान शब्द का प्रयोग किया था और उन्हीं जनाब का पाकिस्तान दर्शन तैयार किया हुआ था। इसकी बाद से मुसलमानी राज बनाने जो संकोच था वह मुसलमानों में जाता रहा। मॉडर्न इस्लाम इन इण्डिया के लेखक डब्लयू.सी.स्मिथ ने इ$कबाल को विफलता बोध का कवि कहा।
भारतीय राष्ट्रीयता और मुसलमान